The Story of Shri Krushnadas Meghan - 1
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krushnadas meghan
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कृष्णदास मेघन क्षत्रिय की वार्ता
एक समय श्री आचार्यजी महाप्रभु ने पृथ्वी की परिक्रमा की | उस समय कृष्णदास मेघन भी साथ ही थे, बद्रीनारायण के उस ओर किरनी नामक पर्वत है, वहा से एक शिलाखण्ड गिरा, उसे कृष्णदास ने आपने हाथो में थम लिया | इस पर श्री आचार्यजी महाप्रभु बहुत प्रसन्न हुए | उन्होंने कृष्णदास से कहा - "माँगो, क्या माँगते हो |" तब कृष्णदास ने तीन वस्तु माँगी -"प्रथम तो - मुखरता का दोष नष्ट हो | द्वित्तीय मार्ग के सिद्धान्त का रहस्य समझ में आ जाए | तुत्तिय - मेरे गुरुदेव के घर आप स्वयं पधरावनी करे |" उनमे से प्रथम दोनों वस्तुओ की स्वीकृति श्री आचार्यजी महाप्रभु ने तत्काल ही प्रदान कर दि, लेकिन गुरु के घर पधारने के लिए निषेध कर दिया |
इसके बाद बद्रिकाश्रम से आगे प्रस्थान किया | अगम्य पर्वत प्रदेश जहा जीवन गम्य नहीं है, वहा श्री वेदव्यासजी का स्थान है | श्री आचार्यजी महाप्रभु वहा पधारे ओर कृष्णदास से कहा "तू यही खड़ा रहना |" श्री आचार्यजी महाप्रभु आगे पधारे तो श्री वेड व्यासजी सामने आये और श्री आचार्यजी महाप्रभु को अपने धाम में ले आये | श्री वेदव्यासजी ने श्री आचार्यजी से पूछा - " तुमने श्री भागवतजी की टीका लिखी है, वह मुझे सुनाओ |" श्री आचार्यजी महाप्रभु ने युगल गीत के अध्याय का एक श्लोक कहा -
वाम बाहुकृत्वाम कपोलो वल्गित भ्रृरधरार्पित वेणुम् |
कोमलांगुलिभिराश्रितमार्ग गोप्य ईरयति यत्र मुकुन्दः ||
इस श्लोक का व्याख्यान किया तो तीन दिन व्यतीत हो गए | श्री वेदव्यासजी ने विनय भाव से कहा - " मैं इस भागवत के व्याख्यान की अवधारणा नहीं कर सकता हु, अतः मुझे क्षमा करो |" तत्पश्चात श्री आचार्यजी महाप्रभु ने वेदव्यास से कहा -" आपने वेदान्त में ऐसे सूत्र क्या लिख दिये कि उनका मायावाद परक अर्थ लगा है |" श्री वेदव्यासजी बोले - "मैं क्या करू ? मुझे तो आज्ञा ही ऐसी थी, कि इस प्रकार के अर्थ करना |" श्री आचार्यजी महाप्रभु ने कहा -"मैंने ब्रह्मवादपरक अर्थ किया है |" व्यासजी को ब्रह्मवादपरक अर्थ सुनाया जिसे सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए | वे व्यासजी से विदा होकर तीसरे दिन जब श्री आचार्यजी महाप्रभु कृष्णदास के पास पधारे तो कृष्णदास से कहा - तू यही ठहर रहा है गया क्यों नहीं |" कृष्णदास ने कहा -"महाराज मै कहा जाऊ, मुझे आपके चरणारविन्दो के अलावा कोई अन्य आश्रय ही नहीं है |" यह सुनकर श्री आचार्यजी महाप्रभु बहुत प्रसन्न हुए और बोले -" माँग तू क्या माँगता है ?" कृष्णदास ने वे ही तीन वस्तु माँगी - एक तो मुखरता का दोष दूर हो, दुसरे - मार्ग का सिद्धान्त रहस्य समझ में आ जाए, तीसरे - मेरे गुरुदेव के घर पदार्पण करो | इन तीनो में से दो ही वस्तु प्रदान करना स्वीकार किया और गुरु के घर पधारने का निषेध किया |
एक समय श्री आचार्यजी महाप्रभु ने पृथ्वी की परिक्रमा की | उस समय कृष्णदास मेघन भी साथ ही थे, बद्रीनारायण के उस ओर किरनी नामक पर्वत है, वहा से एक शिलाखण्ड गिरा, उसे कृष्णदास ने आपने हाथो में थम लिया | इस पर श्री आचार्यजी महाप्रभु बहुत प्रसन्न हुए | उन्होंने कृष्णदास से कहा - "माँगो, क्या माँगते हो |" तब कृष्णदास ने तीन वस्तु माँगी -"प्रथम तो - मुखरता का दोष नष्ट हो | द्वित्तीय मार्ग के सिद्धान्त का रहस्य समझ में आ जाए | तुत्तिय - मेरे गुरुदेव के घर आप स्वयं पधरावनी करे |" उनमे से प्रथम दोनों वस्तुओ की स्वीकृति श्री आचार्यजी महाप्रभु ने तत्काल ही प्रदान कर दि, लेकिन गुरु के घर पधारने के लिए निषेध कर दिया |
इसके बाद बद्रिकाश्रम से आगे प्रस्थान किया | अगम्य पर्वत प्रदेश जहा जीवन गम्य नहीं है, वहा श्री वेदव्यासजी का स्थान है | श्री आचार्यजी महाप्रभु वहा पधारे ओर कृष्णदास से कहा "तू यही खड़ा रहना |" श्री आचार्यजी महाप्रभु आगे पधारे तो श्री वेड व्यासजी सामने आये और श्री आचार्यजी महाप्रभु को अपने धाम में ले आये | श्री वेदव्यासजी ने श्री आचार्यजी से पूछा - " तुमने श्री भागवतजी की टीका लिखी है, वह मुझे सुनाओ |" श्री आचार्यजी महाप्रभु ने युगल गीत के अध्याय का एक श्लोक कहा -
वाम बाहुकृत्वाम कपोलो वल्गित भ्रृरधरार्पित वेणुम् |
कोमलांगुलिभिराश्रितमार्ग गोप्य ईरयति यत्र मुकुन्दः ||
इस श्लोक का व्याख्यान किया तो तीन दिन व्यतीत हो गए | श्री वेदव्यासजी ने विनय भाव से कहा - " मैं इस भागवत के व्याख्यान की अवधारणा नहीं कर सकता हु, अतः मुझे क्षमा करो |" तत्पश्चात श्री आचार्यजी महाप्रभु ने वेदव्यास से कहा -" आपने वेदान्त में ऐसे सूत्र क्या लिख दिये कि उनका मायावाद परक अर्थ लगा है |" श्री वेदव्यासजी बोले - "मैं क्या करू ? मुझे तो आज्ञा ही ऐसी थी, कि इस प्रकार के अर्थ करना |" श्री आचार्यजी महाप्रभु ने कहा -"मैंने ब्रह्मवादपरक अर्थ किया है |" व्यासजी को ब्रह्मवादपरक अर्थ सुनाया जिसे सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए | वे व्यासजी से विदा होकर तीसरे दिन जब श्री आचार्यजी महाप्रभु कृष्णदास के पास पधारे तो कृष्णदास से कहा - तू यही ठहर रहा है गया क्यों नहीं |" कृष्णदास ने कहा -"महाराज मै कहा जाऊ, मुझे आपके चरणारविन्दो के अलावा कोई अन्य आश्रय ही नहीं है |" यह सुनकर श्री आचार्यजी महाप्रभु बहुत प्रसन्न हुए और बोले -" माँग तू क्या माँगता है ?" कृष्णदास ने वे ही तीन वस्तु माँगी - एक तो मुखरता का दोष दूर हो, दुसरे - मार्ग का सिद्धान्त रहस्य समझ में आ जाए, तीसरे - मेरे गुरुदेव के घर पदार्पण करो | इन तीनो में से दो ही वस्तु प्रदान करना स्वीकार किया और गुरु के घर पधारने का निषेध किया |
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